आज के समय की भागदौड़ की वजह से मनुष्य का प्रकृति से नाता टूट सा गया है। आप अपने आस पास भी देख सकते हैं कि पहले जहा बहुत अधिक पेड़ हुआ करते थे। आज पेड़ो की संख्या बहुत ही काम रह गयी है। प्रकृति ने मनुष्य को हमेशा दिया ही है। जैसे फल – फूल, छाया, जड़ी – बूटियां, हवा – पानी इत्यादि।
स्कूलों में भी हमे प्रकृति के महत्व के बारे में प्रकृति पर कविताओं (Poems on Nature) के ज़रिये पढ़ाया जाता है। और यह प्रत्येक पृथ्वी वासी का कर्तव्य है के वो प्रकृति का सम्मान करे और उसका सरंक्षण करे।
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25. Best Poem on Nature in Hindi | प्रकृति पर कविताएँ
निचे दी गयी कुछ कविताओं में कवी ने प्रकृति माँ का कितनी खूबसूरती के साथ वर्णन किया है।
प्रकृति संदेश / प्रकृति का संदेश kavita
पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।
समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी मीठी मृदुल उमंग!
पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार!
– सोहनलाल द्विवेदी
काली घटा (Kaali Ghata Nature Poem)
काली घटा छाई है
लेकर साथ अपने यह
ढेर सारी खुशियां लायी है
ठंडी ठंडी सी हव यह
बहती कहती चली आ रही है
काली घटा छाई है
कोई आज बरसों बाद खुश हुआ
तो कोई आज खुसी से पकवान बना रहा
बच्चों की टोली यह
कभी छत तो कभी गलियों में
किलकारियां सीटी लगा रहे
काली घटा छाई है
जो गिरी धरती पर पहली बूँद
देख ईसको किसान मुस्कराया
संग जग भी झूम रहा
जब चली हवाएँ और तेज
आंधी का यह रूप ले रही
लगता ऐसा कोई क्रांति अब सुरु हो रही
छुपा जो झूट अमीरों का
कहीं गली में गढ़ा तो कहीं
बड़ी बड़ी ईमारत यूँ ड़ह रही
अंकुर जो भूमि में सोये हुए थे
महसूस इस वातावरण को
वो भी अब फूटने लगे
देख बगीचे का माली यह
खुसी से झूम रहा
और कहता काली घटा छाई है
साथ अपने यह ढेर सारी खुशियां लायी है
ये वृक्षों में उगे परिन्दे ( Hindi Poems on Nature )
ये वृक्षों में उगे परिन्दे
पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिये
अग जग में अपनी सुगन्धित का
दूर-पास विस्तार किये।
झाँक रहे हैं नभ में किसको
फिर अनगिनती पाँखों से
जो न झाँक पाया संसृति-पथ
कोटि-कोटि निज आँखों से।
श्याम धरा, हरि पीली डाली
हरी मूठ कस डाली
कली-कली बेचैन हो गई
झाँक उठी क्या लाली!
आकर्षण को छोड़ उठे ये
नभ के हरे प्रवासी
सूर्य-किरण सहलाने दौड़ी
हवा हो गई दासी।
बाँध दिये ये मुकुट कली मिस
कहा-धन्य हो यात्री!
धन्य डाल नत गात्री।
पर होनी सुनती थी चुप-चुप
विधि -विधान का लेखा!
उसका ही था फूल
हरी थी, उसी भूमि की रेखा।
धूल-धूल हो गया फूल
गिर गये इरादे भू पर
युद्ध समाप्त, प्रकृति के ये
गिर आये प्यादे भू पर।
हो कल्याण गगन पर-
मन पर हो, मधुवाही गन्ध
हरी-हरी ऊँचे उठने की
बढ़ती रहे सुगन्ध!
पर ज़मीन पर पैर रहेंगे
प्राप्ति रहेगी भू पर
ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि
मूर्त्ति रहेगी भू पर।।
– माखनलाल चतुर्वेदी
हरी हरी खेतों में (Easy Poem on Nature in Hindi)
हरी हरी खेतों में बरस रही है बूंदे,
खुशी खुशी से आया है सावन,
ऐसा लग रहा है जैसे मन की कलियां खिल गई,
ऐसा आया है बसंत,
लेकर फूलों की महक का जशन।
धूप से प्यासे मेरे तन को,
बूंदों ने भी ऐसी अंगड़ाई,
उछल कूद रहा है मेरा तन मन,
लगता है मैं हूं एक दामन।
यह संसार है कितना सुंदर,
लेकिन लोग नहीं हैं उतने अकलमंद,
यही है एक निवेदन,
मत करो प्रकृति का शोषण।
प्रकृति और मानव पर कविता (Poem on Prakriti in Hindi)
कलयुग में अपराध का
बढ़ा अब इतना प्रकोप
आज फिर से काँप उठी
देखो धरती माता की कोख!!
समय समय पर प्रकृति
देती रही कोई न कोई चोट
लालच में इतना अँधा हुआ
मानव को नही रहा कोई खौफ!!
कही बाढ़, कही पर सूखा
कभी महामारी का प्रकोप
यदा कदा धरती हिलती
फिर भूकम्प से मरते बे मौत!!
मंदिर मस्जिद और गुरूद्वारे
चढ़ गए भेट राजनितिक के लोभ
वन सम्पदा, नदी पहाड़, झरने
इनको मिटा रहा इंसान हर रोज!!
सबको अपनी चाह लगी है
नहीं रहा प्रकृति का अब शौक
“धर्म” करे जब बाते जनमानस की
दुनिया वालो को लगता है जोक!!
कलयुग में अपराध का
बढ़ा अब इतना प्रकोप
आज फिर से काँप उठी
देखो धरती माता की कोख!!
– डी. के. निवातिया
मान लेना वसंत आ गया (Nature Poem in Hindi)
बागो में जब बहार आने लगे
कोयल अपना गीत सुनाने लगे
कलियों में निखार छाने लगे
भँवरे जब उन पर मंडराने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
खेतो में फसल पकने लगे
खेत खलिहान लहलाने लगे
डाली पे फूल मुस्काने लगे
चारो और खुशबु फैलाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
आमो पे बौर जब आने लगे
पुष्प मधु से भर जाने लगे
भीनी भीनी सुगंध आने लगे
तितलियाँ उनपे मंडराने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
सरसो पे पीले पुष्प दिखने लगे
वृक्षों में नई कोंपले खिलने लगे
प्रकृति सौंदर्य छटा बिखरने लगे
वायु भी सुहानी जब बहने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
धूप जब मीठी लगने लगे
सर्दी कुछ कम लगने लगे
मौसम में बहार आने लगे
ऋतु दिल को लुभाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
चाँद भी जब खिड़की से झाकने लगे
चुनरी सितारों की झिलमिलाने लगे
योवन जब फाग गीत गुनगुनाने लगे
चेहरों पर रंग अबीर गुलाल छाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया!!
– डी. के. निवातिया
कहो, तुम रूपसि कौन
कहो, तुम रूपसि कौन?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज छाया-छबि में आप,
सुनहला फैला केश-कलाप,
मधुर, मंथर, मृदु, मौन!
मूँद अधरों में मधुपालाप,
पलक में निमिष, पदों में चाप,
भाव-संकुल, बंकिम, भ्रू-चाप,
मौन, केवल तुम मौन!
ग्रीव तिर्यक, चम्पक-द्युति गात,
नयन मुकुलित, नत मुख-जलजात,
देह छबि-छाया में दिन-रात,
कहाँ रहती तुम कौन?
अनिल पुलकित स्वर्णांचल लोल,
मधुर नूपुर-ध्वनि खग-कुल-रोल,
सीप-से जलदों के पर खोल,
उड़ रही नभ में मौन!
लाज से अरुण-अरुण सुकपोल,
मदिर अधरों की सुरा अमोल,–
बने पावस-घन स्वर्ण-हिंदोल,
कहो, एकाकिनि, कौन?
-सुमित्रानंदन पंत
बसंत का मौसम (Poems on Nature in Hindi)
है महका हुआ गुलाब
खिला हुआ कंवल है,
हर दिल मे है उमंगे
हर लब पे ग़ज़ल है,
ठंडी-शीतल बहे ब्यार
मौसम गया बदल है,
हर डाल ओढ़ा नई चादर
हर कली गई मचल है,
प्रकृति भी हर्षित हुआ जो
हुआ बसंत का आगमन है,
चूजों ने भरी उड़ान जो
गये पर नये निकल है,
है हर गाँव मे कौतूहल
हर दिल गया मचल है,
चखेंगे स्वाद नये अनाज का
पक गये जो फसल है,
त्यौहारों का है मौसम
शादियों का अब लगन है,
लिए पिया मिलन की आस
सज रही “दुल्हन” है,
है महका हुआ गुलाब
खिला हुआ कंवल है…!!
– इंदर भोले नाथ
धरती पर ( Short Hindi Poems on Nature )
वन, नदियां, पर्वत व सागर,
अंग और गरिमा धरती की,
इनको हो नुकसान तो समझो,
क्षति हो रही है धरती की।
हमसे पहले जीव जंतु सब,
आए पेड़ ही धरती पर,
सुंदरता संग हवा साथ में,
लाए पेड़ ही धरती पर।
पेड़ -प्रजाति, वन-वनस्पति,
अभयारण्य धरती पर,
यह धरती के आभूषण है,
रहे हमेशा धरती पर।
बिना पेड़ पौधों के समझो,
बढ़े रुग्णता धरती की,
हरी भरी धरती हो सारी,
सेहत सुधरे धरती की।
खनन, हनन व पॉलीथिन से,
मुक्त बनाएं धरती को,
जैव विविधता के संरक्षण की,
अलख जगाए धरती पर।
– रामगोपाल राही
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,
मार्ग वह हमें दिखाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
नदी कहती है’ बहो, बहो
जहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।
जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,
पूर्णता जीवन की पाओ।
विश्व गति ही तो जीवन है,
अगति तो मृत्यु कहाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
शैल कहतें है, शिखर बनो,
उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।
ठोस आधार तुम्हारा हो,
विशिष्टिकरण सहारा हो।
रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,
उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
वृक्ष कहते हैं खूब फलो,
दान के पथ पर सदा चलो।
सभी को दो शीतल छाया,
पुण्य है सदा काम आया।
विनय से सिद्धि सुशोभित है,
अकड़ किसकी टिक पाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
यही कहते रवि शशि चमको,
प्राप्त कर उज्ज्वलता दमको।
अंधेरे से संग्राम करो,
न खाली बैठो, काम करो।
काम जो अच्छे कर जाते,
याद उनकी रह जाती है।
प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।
– श्रीकृष्ण सरल
प्रकृति रमणीक है | प्रकृति के गुणों पर कविता
प्रकृति रमणीक है।
जिसने इतना ही कहा-
उसने संकुल सौंदर्य के घनीभूत भार को
आत्मा के कंधों पर
पूरा नहीं सहा!
भीतर तक
क्षण भर भी छुआ यदि होता-
सौंदर्य की शिखाओं ने,
जल जाता शब्द-शब्द,
रहता बस अर्थकुल मौन शेष।
ऐसा मौन-जिसकी शिराओं में,
सारा आवेग-सिंधु,
पारे-सा-
इधर-उधर फिरता बहा-बहा!
प्रकृति ममतालु है!
दूधभरी वत्सलता से भीगी-
छाया का आँचल पसारती,
-ममता है!
स्निग्ध रश्मि-राखी के बंधन से बांधती,
-निर्मल सहोदरा है!
बाँहों की वल्लरि से तन-तरू को
रोम-रोम कसती-सी!
औरों की आँखों से बचा-बचा-
दे जाती स्पर्शों के अनगूंथे फूलों की पंक्तियाँ-
-प्रकृति प्रणयिनी है!
बूंद-बूंद रिसते इस जीवन को, बांध मृत्यु -अंजलि में
भय के वनांतर में उदासीन-
शांत देव-प्रतिमा है!
मेरे सम्मोहित विमुग्ध जलज-अंतस् पर खिंची हुई
प्रकृति एक विद्युत की लीक है!
ठहरों कुछ, पहले अपने को, उससे सुलझा लूँ
तब कहूँ- प्रकृति रमणीक है…
– जगदीश गुप्त
तेरी याद सा मोसम (Poem About Nature in Hindi)
ह्बायों के रुख से लगता है कि रुखसत हो जाएगी बरसात
बेदर्द समां बदलेगा और आँखों से थम जाएगी बरसात .
अब जब थम गयी हैं बरसात तो किसान तरसा पानी को
बो वैठा हैं इसी आस मे कि अब कब आएगी बरसात .
दिल की बगिया को इस मोसम से कोई नहीं रही आस
आजाओ तुम इस बे रूखे मोसम में बन के बरसात .
चांदनी चादर बन ढक लेती हैं जब गलतफेहमियां हर रात
तब सुबह नई किरणों से फिर होती हें खुसिओं की बरसात .
सुबह की पहली किरण जब छू लेती हें तेरी बंद पलकें
चारों तरफ कलिओं से तेरी खुशबू की हो जाती बरसात .
नहा धो कर चमक जाती हर चोटी धोलाधार की
जब पश्चिम से बादल गरजते चमकते बनते बरसात
– डॉ कुशल चन्द कटोच
प्रकृति और हम | Heart touching Poem on Nature in Hindi
जब भी घायल होता है मन
प्रकृति रखती उस पर मलहम
पर उसे हम भूल जाते हैं
ध्यान कहाँ रख पाते हैं
उसकी नदियाँ, उसके सागर
उसके जंगल और पहाड़
सब हितसाधन करते हमारा
पर उसे दें हम उजाड़
योजना कभी बनाएँ भयानक
कभी सोच लें ऐसे काम
नष्ट करें कुदरत की रौनक
हम, जो उसकी ही सन्तान
– अनातोली परपरा
कुदरत (Hindi Poems on Nature)
हे ईस्वर तेरी बनाई यह धरती, कितनी ही सुन्दर
नए – नए और तरह – तरह के
एक नही कितने ही अनेक रंग!
कोई गुलाबी कहता,
तो कोई बैंगनी, तो कोई लाल
तपती गर्मी मैं
हे ईस्वर, तुम्हारा चन्दन जैसे व्रिक्स
सीतल हवा बहाते
खुशी के त्यौहार पर
पूजा के वक़्त पर
हे ईस्वर, तुम्हारा पीपल ही
तुम्हारा रूप बनता
तुम्हारे ही रंगो भरे पंछी
नील अम्बर को सुनेहरा बनाते
तेरे चौपाये किसान के साथी बनते
हे ईस्वर तुम्हारी यह धरी बड़ी ही मीठी
प्रकृति के दफ़्तर में कविता | शरद कोकास
कल शाम गुस्से में लाल था सूरज
प्रकृति के दफ़्तर में हो रहा है कार्य-विभाजन
जायज़ हैं उसके गुस्से के कारण
अब उसे देर तक रुकना जो पड़ेगा
नहीं टाला जा सकता ऊपर से आया आदेश
काम के घंटों में परिवर्तन ज़रूरी है
यह नई व्यवस्था की माँग है
बरखा, बादल, धूप, ओस, चाँदनी
सब किसी न किसी के अधीनस्थ
बंधी-बंधाई पालियों में
काम करने के आदी
कोई भी अप्रभावित नहीं हैं
हवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
चांदनी कोशिश में है
दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
बादल, बारिश, कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनों
इधर शाम देर से आने लगी है ड्यूटी पर
सुबह जल्दी आने की तैयारी में लगी है
दोपहर को नींद आने लगी है दोपहर में
सबके कार्य तय करने वाला मौसम
ख़ुद परेशान है तबादलों के इस मौसम में
खुश है तो बस रात
अब उसे अकेले नहीं रुकना पड़ेगा
वहशी निगाहों का सामना करते हुए
ओवरटाइम के बहाने देर रात तक
भोर, दुपहरी, साँझ, रात
सब के सब नये समीकरण की तलाश में
जैसे पुराने साहब की जगह
आ रहा हो कोई नया साहब ।
– शरद कोकास
प्रकृति-परी कविता | सुधा गुप्ता
प्रकृति परी
हाथ लिये घूमती
जादू की छड़ी
मोहक रूप धरे
सब का मन हरे
धरा सुन्दरी!
तेरा मोहक रूप
बड़ा निराला
निज धुन मगन
हर कोई मतवाला
वसन्त आया
बहुत ही बातूनी
हुई हैं मैना
चहकती फिरतीं
अरी, आ, री बहना
आम की डाली
खुशबू बिखेरती
पास बुलाती
‘चिरवौनी’ करती है
पिकी, चोंच मार के
चाँदनी स्नात
शरद-पूनो रात
भोर के धोखे
पंछी चहचहाते
जाग पड़ता वन
मायके आती
गंध मदमाती-सी
कली बेला की
वर्ष में एक बार
यही रीति-त्योहार
शेफाली खिली
वन महक गया
ॠतु ने कहा:
गर्व मत करना
पर्व यह भी गया
काम न आई
कोहरे की रज़ाई
ठण्डक खाई
छींक-छींक रजनी
आँसू टपका रही
दुग्ध-धवल
चाँदनी में नहाया
शुभ्र, मंगल
आलोक जगमग
हँस रहा जंगल
तम घिरा रे
काजल के पर्वत
उड़ते आए
जी भर बरसेंगे
धान-बच्चे हँसेंगे
घुमन्तू मेघ
बड़े ही दिलफेंक
शम्पा को देखा
शोख़ी पे मर मिटे
कड़की, डरे, झरे
बड़ी सुबह
सूरज मास्टर दा’
किरण-छड़ी
ले, आते-धमकाते
पंछी पाठ सुनाते
सलोनी भोर
श्वेत चटाई बिछा
नीले आँगन
फुरसत में बैठी
कविता पढ़ रही
फाल्गुनी रात
बस्तर की किशोरी
सज-धज के
‘घोटुल’ को तैयार
चाँद ढूँढ लिया है
वर्षा की भोर,
मेघों की नौका-दौड़
शुरू हो गई
‘रेफरी’ थी जो हवा,
खेल शामिल हुई
वन पथ में
जंगली फूल-गंध
वनैली घास
चीना-जुही लतर
सोई राज कन्या-सी
सज के बैठी
आकाश की अटारी
बालिका-बधू
नीला आँचल उठा
झाँके मासूम घटा
वर्षा से ऊबे
शरदाकाश तले
हरी घास पे
रंग-बिरंगे पंछी
पिकनिक मनाते
आज सुबह
आकाश में अटकी
दिखाई पड़ी
फटी कागज़ी चिट्ठी
आह! टूटा चाँद था!!
ज्वर से तपे
जंगल के पैताने
आ बैठी धूप
प्यासा बेचैन रोगी
दो बूँद पानी नहीं
कोयलिया ने
गाए गीत रसीले
कोई न रीझा
धन की अंधी दौड़
कान चुरा ले भागी
जी भर जीना
गाना-चहचहाना
पंछी सिखाते:
केवल वर्तमान
कल का नहीं भान
परिन्दे गाते
कृतज्ञता से गीत
प्रभु की प्रति:
उड़ने को पाँखें दीं
और चंचु को दाना
पौष का सूर्य
सामने नहीं आता
मुँह चुराता
बेवफ़ा नायक-सा
धरती को फुसलाता
धरा के जाये
वसन्त आने पर
खिलखिलाए
फूले नहीं समाए
मस्ती में गीत गाए
बहुत छोटा
तितली का जीवन
उड़ती रहे
पराग पान करे
कोई कुछ न कहे
जंगल गाता
भींगुर लेता तान
झिल्ली झंकारे
टिम-टिम जुगनू
तरफओं के चौबारे
अपने भार
झुका है हरसिंगार
फूलों का बोझ
उठाए नहीं बने
खिले इतने घने
सूरज मुखी
सूर्य दिशा में घूमें
पूरे दिवस
प्रमाण करते-से
भक्ति भाव में झूमें
पावस ॠतु:
प्रिया को टेर रहा
हर्षित मोर
पंख पैफला नाचता
प्रेम-कथा बाँचता
पेड़ हैरान
पूछें- हे भगवान्!
इंसानी त्मिप्सा
हम क्या करेंगे जी?
कट-कट मरेंगे जी?
हुई जो भोर
टुहँक पड़े मोर
देखा नशारा
नीली बन्दनवार
अक्षितिज सजी थी
छींेंटे, बौछार
भिगो, खिलखिलाता
शोख़ झरना
स्पफटिक की चादर
किसने जड़े मोती?
पाँत में खड़े
गुलमोहर सजे
हरी पोशाक
चोटी में गूँथे पूफल
छात्राएँ चलीं स्कूल
ठण्डी बयार
सलोनी-सी सुबह
मीठी ख़ुमारी
कोकिल कूक उठी
अजब जादूगरी
बढ़ता जाये
ध्रती का बुख़ार
आर न पार
उन्मत्त है मानव
स्वयंघाती दानव
दिवा अमल
सरि में हलचल
पाल ध्वल
खुले जो तट बँध्
नौका चली उछल
पेंफकता आग
भर-भर के मुट्ठी
धरा झुलसी
दिलजला सूरज
जला के मानेगा
रात के साथी
सब विदा हो चुके
पैफली उजास
अटका रह गया
पफीके ध्ब्बे-सा चाँद
आया आश्विन
मतवाला बनाए
हवा खुनकी
मनचीता पाने को
चाह पिफर ठुनकी
सृष्टि सुन्दरी
पिफर पिफर रिझाती
मत्त यौवना
टूट जाता संयम
अनादि पुरूष का
मैल, कीचड़
सड़े पत्तों की गंध्
लपेटे तन
बंदर-सी खुजाती
आ खड़ी बरसात
सिर पे ताज
पीठ पर है दाग्ा
गीतों की रानी
गाती मीठा तरानाµ
वसन्त! पिफर आना
प्रिय न आए
बैठी दीप जलाए
आकाश तले
आँसू गिराती निशा
न रो, उषा ने कहा
गुलाबी, नीले
बैंगनी व ध्वल
रंग-निर्झर
सावनी की झाड़ियाँ
हँस रहीं जी भर
बुलबुल का
बहार से मिलन
रहा नायाब
गाती रही तराना
खिलते थे गुलाब
किसकी याद
सिर पटकती है
लाचार हवा
खोज-खोज के हारी
नहीं दर्द की दवा
आ गया पौष
लाया ठण्डी सौगातें
बप़्ार्फीली रातें
पछाड़ खाती हवा
कोई घर न खुला
– सुधा गुप्ता
प्रकृति (Hindi Kavita on Nature)
सुन्दर रूप इस धरा का,
आँचल जिसका नीला आकाश,
पर्वत जिसका ऊँचा मस्तक,2
उस पर चाँद सूरज की बिंदियों का ताज
नदियों-झरनो से छलकता यौवन
सतरंगी पुष्प-लताओं ने किया श्रृंगार
खेत-खलिहानों में लहलाती फसले
बिखराती मंद-मंद मुस्कान
हाँ, यही तो हैं,……
इस प्रकृति का स्वछंद स्वरुप
प्रफुल्लित जीवन का निष्छल सार
– डी. के. निवतियाँ
बसंत मनमाना (Short Poem on Nature in Hindi)
चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।
धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।
छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल
किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।
-माखनलाल चतुर्वेदी
मौसम बसंत का (प्रकृति सौंदर्य पर कविता)
लो आ गया फिर से हँसी मौसम बसंत का
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का
गर्मी तो अभी दूर है वर्षा ना आएगी
फूलों की महक हर दिशा में फ़ैल जाएगी
पेड़ों में नई पत्तियाँ इठला के फूटेंगी
प्रेम की खातिर सभी सीमाएं टूटेंगी
सरसों के पीले खेत ऐसे लहलहाएंगे
सुख के पल जैसे अब कहीं ना जाएंगे
आकाश में उड़ती हुई पतंग ये कहे
डोरी से मेरा मेल है आदि अनंत का
लो आ गया फिर से हँसी मौसम बसंत का
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का
ज्ञान की देवी को भी मौसम है ये पसंद
वातवरण में गूंजते है उनकी स्तुति के छंद
स्वर गूंजता है जब मधुर वीणा की तान का
भाग्य ही खुल जाता है हर इक इंसान का
माता के श्वेत वस्त्र यही तो कामना करें
विश्व में इस ऋतु के जैसी सुख शांति रहे
जिसपे भी हो जाए माँ सरस्वती की कृपा
चेहरे पे ओज आ जाता है जैसे एक संत का
लो आ गया फिर से हँसी मौसम बसंत का
शुरुआत है बस ये निष्ठुर जाड़े के अंत का
– शिशिर “मधुकर”
फूल (Poem on Nature in Hindi)
हमें तो जब भी कोई फूल नज़र आया है
उसके रूप की कशिश ने हमें लुभाया है
जो तारीफ़ ना करें कुदरती करिश्मों की
क्यों हमने फिर मानव का जन्म पाया है.
– शिशिर मधुकर
प्रकृति कविता / डी. एम. मिश्र | Nature Poem
विधाता रहस्य रचता है
मनुष्य विस्मय में डूब जाता है
फिर जैसी जिसकी आस
वैसी उसकी तलाश
नतीज़े दिखाकर
प्रकृति मुमराह नहीं करती
प्रकृति जानती है
वह बड़ी है
पर, आस्था और
विश्वास पर खड़ी है
जहाँ एक पूजा घर होने से
बहुत कुछ बच जाता है खोने से
अनन्त का आभास
निकट से होता है
एक आइना अपनी धुरी पर
धूमता हुआ
बहुत दूर निकल जाता है
तब क्या-क्या
सामने आता है
जटिलताओं का आभास
फूल-पत्तियों को कम
जड़ों और बारीक तंतुओं को ज्यादा होता है
जहाँ भाषा और जुबान का
कोई काम नहीं होता
– डी. एम. मिश्र
विधाता (Hindi Poem on Nature for Class 7)
कोन से साँचो में तूं है बनाता, बनाता है ऐसा तराश-तराश के,
कोई न बना सके तूं ऐसा बनाता, बनाता है उनमें जान डाल के!
सितारों से भरा बरह्माण्ड रचाया, ना जाने उसमे क्या -क्या है समाया,
ग्रहों को आकाश में सजाया, ना जाने कैसा अटल है घुमाया,
जो नित नियम गति से अपनी दिशा में चलते हैं,
अटूट प्रेम में घूम-घूम के, पल -पल आगे बढ़ते हैं!
सूर्य को है ऐसा बनाया, जिसने पूरी सुृष्टि को चमकाया,
जो कभी नहीं बुझ पाया, ना जाने किस ईंधन से जगता है,
कभी एक शोर, कभी दूसरे शोर से,
धरती को अभिनदंन करता है!
तारों की फौज ले के, चाँद धरा पे आया,
कभी आधा, कभी पूरा है चमकाया,
कभी -कभी सुबह शाम को दिखाया,
कभी छिप-छिप के निगरानी करता है!
गाँव मेरा (Poem on Nature in Hindi)
इस लहलाती हरियाली से, सजा है ग़ाँव मेरा…..
सोंधी सी खुशबू, बिखेरे हुऐ है ग़ाँव मेरा…!!
जहाँ सूरज भी रोज, नदियों में नहाता है………
आज भी यहाँ मुर्गा ही, बांग लगाकर जगाता है!!
जहाँ गाय चराने वाला ग्वाला, कृष्ण का स्वरुप है…..
जहाँ हर पनहारन मटकी लिए, धरे राधा का रूप है!!
खुद में समेटे प्रकृति को, सदा जीवन ग़ाँव मेरा….
इंद्रधनुषी रंगो से ओतप्रोत है, ग़ाँव मेरा..!!
जहाँ सर्दी की रातो में, आले तापते बैठे लोग……..
और गर्मी की रातो में, खटिया बिछाये बैठे लोग!!
जहाँ राम-राम की ही, धव्नि सुबह शाम है………
यहाँ चले न हाय हेलो, हर आने जाने वाले को बस ”सीता राम” है!!
भजनों और गुम्बतो की मधुर धव्नि से, है संगीतमय गाँव मेरा….
नदियों की कल-कल धव्नि से, भरा हुआ है गाँव मेरा!!
जहाँ लोग पेड़ो की छाँव तले, प्याज रोटी भी मजे से खाते है……
वो मजे खाना खाने के, इन होटलों में कहाँ आते है!!
जहाँ शीतल जल इन नदियों का, दिल की प्यास बुझाता है …
वो मजा कहाँ इन मधुशाला की बोतलों में आता है….!!
ईश्वर की हर सौगात से, भरा हुआ है गाँव मेरा …….
कोयल के गीतों और मोर के नृत्य से, संगीत भरा हुआ है गाँव मेरा!!
जहाँ मिटटी की है महक, और पंछियो की है चहक………
जहाँ भवरों की गुंजन से, गूंज रहा है गाँव मेरा….!!
प्रकृति की गोद में खुद को समेटे है गाँव मेरा……….
मेरे भारत देश की शान है, ये गाँव मेरा…!!
प्रकृति में तुम कविता / पुष्पिता | Poems on Nature in Hindi
सूर्य की चमक में
तुम्हारा ताप है
हवाओं में
तुम्हारी साँस है
पाँखुरी की कोमलता में
तुम्हारा स्पर्श
सुगंध में
तुम्हारी पहचान।
जब जीना होता है तुम्हें
प्रकृति में खड़ी हो जाती हूँ
और आँखें
महसूस करती हैं
अपने भीतर तुम्हें।
मैं अपनी परछाईं में
देखती हूँ तुम्हें
परछाईं के काग़ज़ पर
लिखती हूँ गहरी परछाईं के
प्रणयजीवी शब्द।
तुम मेरी आँखों के भीतर
जो प्यार की पृथ्वी रचते हो
उसे मैं शब्द की प्रकृति में
घटित करती हूँ।
– पुष्पिता
प्रकृति की ओर कविता | Hindi Poems On Nature
प्रातः बेला
टटके सूरज को जी भर देखे
कितने दिन बीत गए।
नहीं देख पाया
पेड़ों के पीछे उसे
छिप-छिपकर उगते हुए।
नहीं सुन पाया
भोर आने से पहले
कई चिड़ियों का एक साथ कलरव।
नहीं पी पाया
दुपहरी की बेला
आम के बगीचे में झुर-झुर बहती
शीतल बयार।
उजास होते ही
गेहूँ काटने के लिए
किसानों, औरतों, बच्चों और बेटियों का जत्था
मेरे गाँव से होकर
आज भी जाता होगा।
देर रात तक
आज भी
खलिहान में
पकी हुई फ़सलों का बोझ
खनकता होगा।
हमारे सीवान की गोधूलि बेला
घर लौटते हुए
बछड़ों की हर्ष-ध्वनि से
आज भी गूँजती होगी।
फिर कब देखूँगा?
गनगनाती दुपहरिया में
सघन पत्तियों के बीच छिपा हुआ
चिड़ियों का जोड़ा।
फिर कब सुनूँगा?
कहीं दूर
किसी किसान के मुँह से
रात के सन्नाटे में छिड़ा हुआ
कबीर का निर्गुन-भजन।
फिर कब छूऊँगा?
अपनी फसलों की जड़ें
उसके तने, हरी-हरी पत्तियाँ
उसकी झुकी हुई बालियाँ।
अपने घर के पिछवाड़े
डूबते समय
डालियों, पत्तियों में झिलमिलाता हुआ सूरज
बहुत याद आता है। अपने चटक तारों के साथ
रात में जी-भरकर फैला हुआ
मेरे गाँव के बगीचे में
झरते हुए पीले-पीले पत्ते
कब देखूँगा?
उसकी डालियों, शाखाओं पर
आत्मा को तृप्त कर देने वाली
नई-नई कोंपलें कब देखूँगा?
– भरत प्रसाद
हमे आशा है के आपको ऊपर लिखित प्रकृति पर कवितायेँ बहुत पसंद आयी होंगी। अगर आपको कुछ ऐसी कवितायेँ पता हैं जो हम इस आर्टिकल में लिखना भूल गए हैं तो कृपया हमे कमेंट में लिख कर जरूर बताएं।